भारत की विविधता को ध्यान में रखते हुए अवसर की समानता, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का उल्लेख भारतीय संविधान की प्रस्तावना में ही है। जब आरक्षण की व्यवस्था पर संविधान सभा में बहस हो रही थी तो आंबेडकर ने गोपाल कृष्ण गोखले की उस बात का उल्लेख किया, जिसमें उन्होंने कहा था कि ब्रिटिश कर्मचारी तंत्र में भारतीयों का प्रतिनिधित्व न होने के कारण समाज कुंठित हो रहा है। इसलिए समाज के सभी लोगों का प्रतिनिधित्व होना चाहिए, नैतिकता के आधार पर उनकी क्षमताओं के उपयोग के लिए उन्हें आरक्षण दिया जाना चाहिए। आंबेडकर ने कहा कि जब डेढ़ सौ वर्ष पुरानी अंगरेजी शासन-व्यवस्था में प्रतिनिधित्व न मिलने के कारण भारतीय सवर्ण अपनी क्षमताओं का उपयोग नहीं कर पा रहे थे, तो भारत के दलित समाज की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। इसी पृष्ठभूमि में आंबेडकर ने संविधान सभा में दलितों को आरक्षण देने की मांग उठाई, ताकि उनका प्रतिनिधित्व हो सके और वे अपनी क्षमताओं का उपयोग कर सकें। गांधीजी ने अपनी किताब ‘मेरे सपनों का भारत’ में लिखा है: ‘सरकारी महकमों में जहां तक कोटे की बात है, अगर हमने उसमें सांप्रदायिक भावना का समावेश किया तो यह एक अच्छी सरकार के लिए घातक होगा। मैं समझता हूं कि सक्षम प्रशासन के लिए, उसे आवश्यक रूप से हमेशा योग्य हाथों में होना चाहिए। निश्चित ही वहां भेदभाव की कोई गुंजाइश नहीं होनी चाहिए। पदों का वितरण हर समुदाय के सदस्यों के अनुपात में नहीं होना चाहिए। जो सरकारी सेवाओं में जवाबदेही के पदों को पाने की लालसा रखते हैं, वे इसके लिए जरूरी परीक्षा पास करने पर ही उन पर काबिज हो सकते हैं।’ पंडित नेहरू ने 27 जून, 1961 को मुख्यमंत्रियों को लिखे एक पत्र में कहा था: ‘हमें आरक्षण की पुरानी आदत और इस जाति या उस समूह को दी गई खास तरह की रियायतों से बाहर आने की आवश्यकता है। यह सच है कि अनुसूचित जाति-जनजाति को मदद करने के प्रसंग में हम कुछ नियम-कायदों और बाध्यताओं से बंधे हैं। वे मदद के पात्र हैं, लेकिन इसके बावजूद मैं किसी भी तरह के कोटे के खिलाफ हूं, खासकर सरकारी सेवाओं में। मैं किसी भी तरह की अक्षमता और दोयम दर्जेपन के सर्वथा विरुद्ध हूं। मैं चाहता हूं कि मेरा देश हरेक क्षेत्र में अव्वल देश बने। जिस घड़ी हम दोयम दर्जे को बढ़ावा देंगे, हम मोर्चा हार जाएंगे।’ हालांकि भारतीय राजनीति में पिछड़ों के लिए दरवाजे खोलने की शुरुआत जवाहरलाल नेहरू के समय में हुई थी। उन्होंने 29 जनवरी, 1953 को पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया। इसके पहले अध्यक्ष काका कालेलकर थे। उनकी अगुवाई में लगभग दो साल के विचार मंथन के बाद आयोग ने 30 मार्च, 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी। यह रिपोर्ट विचार के स्तर पर ही दम तोड़ गई। वह अंतर्विरोधों से भरी थी। उसके अनेक सदस्य उस पर असहमति दर्ज करा चुके थे। फिर 20 दिसंबर, 1978 को मोरारजी देसाई ने संसद में बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अगुआई में नए आयोग की घोषणा की। मंडल आयोग ने 12 दिसंबर, 1980 को अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप दे दिया। तब तक केंद्र में सत्ता बदल चुकी थी। अब इंदिरा गांधी सत्ता में थीं। उनके मंत्रिमंडल में आयोग के प्रस्तावों को मूर्त रूप देने पर कई तरह के आग्रह-दुराग्रह थे। मंडल आयोग ने ग्यारह प्रकार की सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक कसौटियों पर जातियों को परखा था। गहन शोध के बाद आयोग ने पाया था कि देश में कुल 3,743 पिछड़ी जातियां हैं। वह भारतीय आबादी का बावन प्रतिशत हिस्सा था। इसके लिए 1931 की जनगणना को आधार बनाया गया था। मंडल आयोग ने सरकारी नौकरियों में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए सत्ताईस फीसद आरक्षण की सिफारिश की। अनुसूचित जाति-जनजाति को पहले ही साढ़े बाईस प्रतिशत आरक्षण हासिल था। यानी अगर यह सिफारिश मान ली जाती तो देश में लगभग 49.5 फीसद सरकारी नौकरियां आरक्षित वर्ग के कोटे में चली जानी थीं। 13 अगस्त, 1990 को वीपी सिंह की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने इसे लागू करने की अधिसूचना जारी की। उसके बाद से आरक्षण का सिलसिला खत्म नहीं हो रहा। वर्तमान में राजनीतिक धुरंधरों ने आरक्षण की मूल भावना को बिसार कर प्रतिनिधित्व के बजाय मात्र सरकारी नौकरियों तक सीमित कर दिया। इसी आलोक में गुजरात के पटेल-पाटीदार समुदाय, राजस्थान के गुर्जर समुदाय, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और हरियाणा के जाट समुदाय द्वारा ओबीसी आरक्षण की मांग को देखना चाहिए। आरक्षण का अर्थ गरीबी उन्मूलन नहीं है। प्रतिनिधित्व और आर्थिक पिछड़ापन दो अलग बातें हैं। आर्थिक पिछड़ापन सभी जातियों में है, इसलिए सरकार द्वारा आर्थिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए बीपीएल जैसी योजना शुरू की गई, जिससे समाज की सभी जातियां, सभी पंथों के लोग समान रूप से लाभान्वित होते हैं। लेकिन बीपीएल योजना का आधार मात्र आर्थिक होने के कारण उन्हें वह लाभ नहीं मिलता, जो आरक्षण से मिलता है। मसलन, विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका में प्रतिनिधित्व का आधार समाज की जातियां हैं न कि आर्थिक पिछड़ापन। इसलिए प्रतिनिधित्व और आर्थिक पिछड़ेपन के बीच की महीन रेखा को समझना होगा। संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। इसके लिए शर्त है कि उस खास वर्ग को साबित करना होगा कि वह अन्य वर्गों के मुकाबले सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़ा हुआ है। 1993 के मंडल कमीशन मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने कहा था कि जाति अपने आप में आरक्षण का आधार नहीं बन सकती। उसमें दिखाई देना चाहिए कि पूरी जाति शैक्षणिक-सामाजिक रूप से बाकियों से पिछड़ी है। अलग-अलग राज्यों में देखा गया है कि किसी समुदाय को एक राज्य में आरक्षण है, तो किसी अन्य राज्य या केंद्र में नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कर दिया था कि राज्यों में आरक्षण के लिए अलग-अलग स्थिति हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने एक मामले में कहा था कि आमतौर पर पचास फीसद से ज्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता, क्योंकि एक तरफ हमें मेरिट का खयाल रखना होगा तो दूसरी तरफ हमें सामाजिक न्याय को भी ध्यान में रखना होगा। अलग-अलग राज्यों में आरक्षण देने का तरीका अलग है। शुरू में सिर्फ एससी और एसटी को दस साल के लिए आरक्षण का प्रावधान था। लेकिन मंडल कमीशन की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी को भी आरक्षण दिया गया। सरकारी नौकरियों और शिक्षा में भी पिछड़े वर्ग को सत्ताईस फीसद आरक्षण मिला। हालांकि पिछड़े वर्ग के क्रीमी लेयर को आरक्षण का लाभ नहीं दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश के मुताबिक पचास फीसद से ज्यादा आरक्षण नहीं होना चाहिए, लेकिन किसी विशेष कारणवश तमिलनाडु में अड़सठ फीसद तक आरक्षण दिया जा रहा है। उसी को आधार बना कर पिछले दिनों राजस्थान में भी आरक्षण की सीमा को बढ़ा कर अड़सठ फीसद कर दिया गया। ऐसी विकट परिस्थिति में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत का कहना कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए, बिल्कुल तर्कसंगत और समय की मांग के अनुरूप है। अब प्रश्न उठाने का समय आ गया है कि हर तरह का आरक्षण हो, लेकिन कब तक? आखिर कोई तो समय सीमा होनी चाहिए। स्वतंत्रता के इतने वर्ष बीत जाने के बाद सवा अरब की जनसंख्या वाले इस देश में क्या आरक्षण प्राप्त सभी नागरिक लाभान्वित हुए? जिस उद्देश्य से भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया था, क्या वह प्राप्त हुआ? निश्चित रूप से किसी भी व्यक्ति के लिए आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता कड़ी मेहनत है। जाति, लालच और सिफारिश, आरक्षण या धर्म की आड़ लेकर यह नहीं हो सकता। आरक्षण का झुनझुना देश के विकास की गति को भी रोकेगा और देश की सामाजिक एकता को भी नुकसान पहुंचाएगा। आरक्षण लागू होने से लेकर अब तक जनसंख्या में बढ़ोतरी हो रही है, पर सरकारी पदों में उसी अनुपात में बढ़ोतरी नहीं हुई है। देश में लगभग चौंतीस लाख केंद्रीय कर्मचारी, बहत्तर लाख राज्यों के कर्मचारी और इक्कीस लाख स्थानीय निकायों के कर्मचारी हैं। इसलिए इस सीमित सरकारी नौकरियों के लिए ही आरक्षण जैसे भावनात्मक विषय उठा कर राजनीतिक रोटी सेंकी जा रही है। बिहार विधानसभा चुनाव में मंडल पार्ट-2 को प्रमुख मुद्दा बनाया जा रहा है। हमारे राजनेता भूल चुके हैं कि उन्हीं लोगों ने संविधान में देश से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विभेद को खत्म करने का संकल्प कर आरक्षण की व्यवस्था की थी, पर अब वही लोग आरक्षण को गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम बनाने पर आमदा हैं, जो बेहद शर्मनाक है। सच्चाई यह है कि जाति को पिछड़ेपन का एकमात्र आधार माना ही नहीं जा सकता। कुल मिलाकर देश में हर जाति और समुदाय के गरीबों को समुचित शिक्षा, स्वास्थ्य और संसाधन उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी है, लेकिन आखिर में आगे बढ़ने के लिए योग्यता ही एकमात्र पैमाना होना चाहिए। देश के कई हिस्सों में हो रहे आरक्षण के आंदोलन साफ संकेत दे रहे हैं कि आगे आने वाले समय में अगर आरक्षण की समीक्षा ठीक ढंग से नहीं की गई तो यह समस्या बहुत विकराल रूप धारण कर सकती है। इसलिए समय रहते आरक्षण की समीक्षा की जाए और अगर आवश्यक हो तो आरक्षण की निश्चित समय सीमा तय कर उसके आधार पर भी विचार किया जाए, क्योंकि पिछली गलतियों की सजा भविष्य नहीं भुगतेगा। - See more at: http://www.jansatta.com/politics/question-on-review-of-reservation/47766/#sthash.60V29Z4D.dpuf