समाज का अशक्तों के प्रति भेदभाव का रवैया छिपा नहीं है। सरकारी स्तर पर भी इनके लिए बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के मामले में अभी तक कोई उल्लेखनीय प्रगति नजर नहीं आती। स्थिति यह है कि बस अड्डों, रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों, स्कूलों, सार्वजनिक भवनों आदि में विकलांगों को ध्यान में रख कर न तो समुचित सीढ़ियां बनाई गई हैं और न उनके सुगम आवागमन का ध्यान रखा गया है। अक्सर पांवों से लाचार लोगों को घिसट कर ऊंचे भवनों में चढ़ते देखा जाता है। जो लोग हाथ वाली साइकिलों पर चलते-फिरते हैं, उनके लिए रैंप नहीं बने होते।
उनके लिए बसों में चढ़ना-उतरना तो खासा तकलीफदेह होता है। इसी तरह सार्वजनिक स्थलों पर दृष्टि-बाधित जन रास्ता भटकते, ठिकाना तलाशते देखे जाते हैं। ब्रेल का उपयोग न किए जाने से भी इन लोगों को बहुत सारी सूचनाएं उपलब्ध नहीं हो पातीं। इन तमाम समस्याओं के मद्देनजर केंद्र सरकार का सुगम्य भारत अभियान निस्संदेह सराहनीय पहल है। इस अभियान के तहत देश भर में अड़तालीस सौ महत्त्वपूर्ण इमारतों, सभी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड््डों, पचहत्तर रेलवे स्टेशनों, पच्चीस फीसद सार्वजनिक बसों और तीन हजार जन-केंद्रित वेबसाइटों को अगले साल जुलाई तक विकलांग-अनुकूल सेवाओं में बदलने का लक्ष्य तय किया गया है। अड़तालीस शहरों में कम से कम सौ महत्त्वपूर्ण इमारतों की जांच करके अगले साल के अंत तक उनमें सुगम्य बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने का इरादा जताया गया है।
भारत में कुल निशक्त जनों की संख्या करीब दो करोड़ अड़सठ लाख है। इनके लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान है। मगर उनकी पहली जरूरत आवागमन और कामकाज के अनुकूल सुविधाओं की है, जिसके प्रति संस्थानों में शिथिलता का भाव ही नजर आता है। अव्वल तो पढ़ाई-लिखाई के स्तर पर ही इन लोगों के प्रति भेदभाव दिखने लगता है। प्राय: स्कूलों में ऐसे लोगों को ध्यान में रख कर न तो सीढ़ियां बनाई जाती हैं, न लिफ्ट आदि की सुविधा होती है। जो बच्चे पोलियोग्रस्त होते हैं या किसी वजह से उन्हें बैसाखी लेकर या पहिएदार साइकिल से चलना पड़ता है, उनके लिए स्कूल आना-जाना किसी यातना से कम नहीं होता। तमाम आपत्तियों के बावजूद बसों के पायदान की ऊंचाई निशक्त जनों के अनुकूल नहीं बनाई जा सकी है।
नेत्रहीनों के लिए लिफ्ट, सार्वजनिक सूचना पटल आदि पर ब्रेल में सूचनाएं मुहैया कराई जानी चाहिए, मगर जब आज तक ब्रेल में समुचित पाठ्य पुस्तकें उपलब्ध नहीं हो पातीं, उन्हें पढ़ाने-लिखाने के लिए प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी को दूर नहीं किया जा पा रहा, तो बाकी मामलों में भला क्या उम्मीद की जा सकती है! इन अभावों के चलते ज्यादातर नेत्रहीन बच्चों को विशेष स्कूलों की शरण लेनी पड़ती है। ये स्कूल हर शहर में उपलब्ध नहीं हैं। थोड़े-से साधन-संपन्न ही उनका लाभ उठा पाते हैं। अशक्तों के लिए सुविधाओं की कमी और उनके प्रति उपेक्षा भाव के चलते बहुत सारे ऐसे बच्चे आरंभिक शिक्षा तक नहीं हासिल कर पाते हैं। जो विकलांग जन रोजगार के अवसर पा भी जाते हैं, वे कार्यस्थलों पर रोजमर्रा की असुविधाएं झेलने को मजबूर होते हैं। ऐसे में सुगम्यता अभियान की अहमियत जाहिर है। सवाल यह है कि क्या वाकई यह बताई गई समय-सीमा में लक्ष्य तक पहुंच पाएगा!